Homeराजनीतिअस्तित्व की लड़ाई में उलझा हुआ विपक्ष

अस्तित्व की लड़ाई में उलझा हुआ विपक्ष

यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत्!
एवं पुरुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति !!

राजकुमार बरूआ

लोकसभा चुनाव 2024 का पहला चरण पूरा हो गया है। पर ऐसा अभी भी नहीं लग रहा कि विपक्ष अपनी मूल भूमिका पर खड़ा है या खडा उतरने की कोशिश भी कर रहा हो,विपक्ष की भूमिका शुरू से ही इतनी कमजोर साबित हो रही है ऐसा प्रतीत ही नहीं हो रहा कि वह इस बार चुनाव को गंभीरता से ले रहा है या पूरे मन से इसको लड़ने की कोशिश भी कर रहा हो। सभी विपक्षी पार्टीयां एकजुट होने का प्रयास करती हुई दिख तो रही है, पर एकजुटता के साथ चुनाव लड़ रही हो ऐसा प्रतीत तो कतई नहीं हो रहा, एक कहावत है, ‘अपनी-अपनी डफली अपना अपना राग’ चुनाव के समय भी विपक्ष का इतना लचीला व्यवहार या अपने ही सहयोगी पार्टियों के साथ द्वंद युद्ध एक संदेह खड़ा करता है की सब कुछ ठीक दिखाने के बावजूद भी कुछ भी ठीक नहीं है और सभी ही अपनी लाइन को बढ़ाने के लिए दूसरे दलों की लाइन को छोटा करने की कोशिश ज्यादा कर रहे हैं और भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को न अपनाकर अपने वजूद की लड़ाई ज्यादा लड़ रहे है, हमारे यहां तो सत्ता पक्ष से ज्यादा विपक्ष को मजबूत रहने की आवश्यकता पर जोर दिया गया है पर वर्तमान समय में सारा विपक्ष तू चल में आया इस भूमिका में ज्यादा दिख रहा है, विपक्ष की एकजुटता हमारे लोकतांत्रिक ढांचे के लिए अत्यंत्र आवश्यक है पर लोकसभा चुनाव 2024 के प्रथम चरण के बाद भी विपक्ष की भूमिका संदेह के घेरे में बनी हुई है। विपक्ष भी एक पक्ष होता है किसी भी निर्णय में दो संभावनाएं होती हैं, एक किसी का साथ देने वाला दूसरा विरोध करने वाला और तीसरा तटस्थ, यहां विरोध करने वाले पक्ष को विपक्ष कहा जाता है।
विपक्ष की मुख्य भूमिका मौजूदा सरकार से सवाल पूछना और जनता के प्रति जवाबदेह होना है, इससे सट्टारूढ दल की कमियो को सुधारने में भी मदद मिलती है, देश के लोगों के सर्वोत्तम हितों को बनाए रखने में विपक्ष की भी मुख्य भूमिका है। विपक्ष को या सुनिश्चित करना होगा कि सरकार कोई ऐसा कदम ना उठाए जिसका देश की जनता पर नकारात्मक प्रभाव पड़े। वर्तमान में भारत का संसदीय विपक्ष न केवल खंडित है बल्कि आव्यवस्थित भी नजर आता है, ऐसा प्रतीत होता है कि शायद ही हमारे पास कोई विपक्षी दल या संगठन है। विपक्ष सरकार की हर गतिविधियों पर नज़र रखने वाला एक चौकीदार है जिसकी मुख्य भूमिका जनता के प्रति है न कि अन्य किसी राजनीतिक फायदे के लिए, पर वर्तमान में विपक्ष का मुख्य कार्य सिर्फ सरकार की आलोचना करना ही दिखता है जनता के प्रति अपने उत्तरदायित्व पर विपक्ष अपना कर्तव्य निभाने में असफल दिखाई देता है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में भारत के संसदीय विपक्ष को पुनः जीवित करना और उसे सशक्त करना अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है विशेष कर जब लोकतंत्र का मूल्यांकन करने वाले विभिन्न सूचकांको में इसकी वैश्विक रैकिंग में गिरावट आ रही है।
सरकार की निगरानी करना, विपक्ष हमेशा ही सरकार की उन कमजोरी की बात करता है जिसका प्रभाव जनता के ऊपर सीधे तौर पर पड़ता हो सरकार तो अपनी योजनाओं का इस प्रकार प्रचार करती है की जनता का ध्यान भटकाया जाए और जनता आज के आधुनिक प्रचार की आड़ में मुद्दों की बातों से अपना ध्यान दूर कर ले। पर विपक्ष की भूमिका सदैव ही जनता के हित में होना चाहिए, जनता का ध्यान सरकार के लोभ-लुभाने वादों में न उलझ कर जनता के प्रति सरकार की जवाबदारियों को पूरा करना और जनता का ध्यान सरकार की वादा-खिलाफी की तरह बनाए रखना विपक्ष का मुख्य कर्तव्य होता है। सामाजिक आंदोलनों में विपक्ष की भूमिका यह तय करती है कि विपक्ष कितना जनता के साथ जुड़ा हुआ है उसकी मूलभूत सुविधाओं के लिए विपक्ष कहां तक उनके साथ खड़ा है और जन आंदोलनों में कहां तक उनका मददगार साबित हो रहा है, जनता से जुड़ाव ही विपक्ष का मूल मंत्र होना चाहिए। एक कमजोर विपक्ष गैर-उत्तरदाई सरकार से कहीं अधिक खतरनाक होता है एक गैर-उत्तरदायी सरकार एक कायर या संकोची विपक्ष के साथ मिलकर कयामत भी कर सकती है। राजनीतिक दलों में भरोसे की कमी नेतृत्व का भाव भी विपक्ष की भूमिका को संदेह के घेरे में लाकर खड़ा कर रहा है वर्तमान में विपक्षी एकजुटता पर कई सवालिया निशान खड़े होते हैं चुनाव के प्रथम चरण के बाद भी विपक्ष की एकता संदेह के घेरे में है सभी विपक्षी राजनीतिक पार्टीयां अपने आप को ज्यादा महत्व दिलवाने के लिए विपक्ष की भूमिका में कम और अपने संगठन को सर्वोपरि रखने के लिए ज्यादा उत्साहित दिख रही हैं जिसका असर विपक्षी संगठन के ताल-मेल पर साफ दिखता है। ऐसा लगता ही नहीं कि विपक्ष सरकार के खिलाफ खड़ा हो यहां तो यह प्रतीत होता है कि विपक्ष अपने सहयोगियों से लड़ते हुए अपने पक्ष को रखने की नाकाम कोशिश कर रहा हो। पिछले कुछ वर्षों में विपक्ष की एक प्रमुख असफलता यह भी रही की सरकार की कई विफलताओं पर भी उसे घेर सकने में विपक्ष की असमर्थता से इसकी पुष्टि होती है।
हमारे देश में विपक्ष का मजबूत होना ही सरकार के मजबूती के साथ जनता से जुड़े रहने का मुख्य कारण होता है विपक्ष का मुख्य कर्तव्य जनता के प्रति है न की अपने राजनीतिक आवश्यकताओं के लिए, जनता विपक्ष की बातों पर ध्यान देकर उसकी गंभीरता को समझती है और सरकार को उसके प्रति अपनी उत्तरदायित्व का एहसास कराती है। हमारे संसदीय इतिहास में कई बार विपक्ष ने वह भुमिका निभाई है जिसको देखकर लगता ही नहीं था कि विपक्ष भी सरकार के साथ इतना तालमेल बनाकर एक उच्चस्तर की राजनीतिक का उदाहरण पेश कर सकती है, विपक्ष में रहते हुए भी अटल बिहारी वाजपेई जी ने कई अवसरों पर जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की तारीफ की इंदिरा गांधी को तो उन्होंने ‘दुर्गा’ तक भी कहा। पर वर्तमान में विपक्ष का एक ही काम है राष्ट्रीय तो राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सरकार की सिर्फ आलोचना करना और कई बार तो विदेशी ताकतों को इस कारण से बल मिलता है और उन्हें वह अवसर मिल जाता है जिसके कारण हमारे देश का नुकसान हो जाता है, साल 1993 में जिनेवा मानवाधिकार सम्मेलन का आयोजन किया गया था तब तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव जी देश के विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेई जी को संयुक्त राष्ट्र संघ में देश का प्रतिनिधित्व करने भेज दिया था।
सरकार और विपक्ष की मिली जुली भूमिका का यह एक बहुत अच्छा उदाहरण है। श्री नरसिम्हा राव कैबिनेट में वित्त मंत्री रहे मनमोहन सिंह को जब विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेई की ओर से काफी सियासी हमले झेलने पड़ते थे तब एक वक्त तो नौबत ऐसी आ गई कि मनमोहन सिंह जी ने नाराज होकर मंत्री पद से इस्तीफा तक का इरादा कर लिया था हालांकि तब नरसिम्हा राव जी खुद बाजपेई जी के पास पहुंचे और उन्हें नाराज मनमोहन सिंह से मिलकर उन्हें समझने का आग्रह किया,अटल जी भी मनमोहन सिंह जी के पास गए और उन्हें समझाया कि आलोचनाओं को खुद पर न लें, वह तो बस विपक्षी नेता होने के नाते सरकार की कार्यप्राणी पर सवाल उठाते हैं। पर पिछले कुछ वर्षों से ऐसा लगता है कि राजनीतिक दल अपने वैचारिक मतभेदों की जगह एक दूसरे को दुश्मनी की नजर से देखने लगे हैं, अब समय है विपक्ष को यह तय करने के लिए कि वहां किस भूमिका में अपने आप को रखना चाहता है जनता के प्रति अपने उत्तरदायित्व को बनाते रखते हुए, सरकार के प्रति एक संसदीय विपक्ष की भूमिका के साथ अथवा अपने राजनीतिक दाल की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए। विपक्ष को यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि उसे विपक्ष की भूमिका में रखने वाली भी जनता ही है तो उसे जनता के द्वारा दिया गये दायित्व पर खरा उतरना ही पड़ेगा।

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