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देश में लोकशाही जीवंत रखनी है तो ना-लायक को ना-लायक कहना होगा

नोटा को भी प्रत्याशी का दर्जा देना होगा, देश के लाखों नागरिक चुनाव से वंचित हो गए, हाल चल रहे चुनाव में सूरत और इंदौर इसकी बड़ी मिसाल, नोटा में ज्यादा वोट निकले तो चुनाव फिर से और सभी प्रत्याशी अयोग्य घोषित हों

कहने को तो भारत देश में लोकशाही चल रही है लेकिन कभी-कभार ऐसा महसूस हो रहा है कि लोकशाही का खुलेआम गला घोंटा जा रहा है और हम सब तमास बिन बन कर देख रहे हैं। जैसे कि इस चुनाव में लाखों नागरिक इंदौर और सूरत में चुनाव होते हुए भी अपना मत का अधिकार गंवा बैठे। अगर नोटा को वहां पर प्रत्याशी का दर्जा मिल गया होता तो शायद सभी नागरिकों को अपना मताधिकार भी मिल गया होता।
भारत में हम देख रहे हैं कि अभी पक्षों में कोई नीति नियम सहनशीलता किसी भी प्रकार के एथिक्स नहीं रहे हैं। किसी को भी इमानदारी से या संविधान के अनुसार चुनाव लड़ने में रस नहीं है। अगर वह जीत रहे हैं तो जीतने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं, कितना भी नीचे गिर सकते हैं इससे उसको कोई भी फर्क नहीं पड़ता है बस जीत अपनी होनी चाहिए। बस यही टारगेट से सब लड़ रहे हैं, जिससे देश की लोकशाही और चुनावी प्रक्रिया पूरी तरह से साइड हो रही है और भारत की लोकशाही में बहुत बड़ा दाग लग रहा है। जो हम दिन प्रतिदिन चुनाव में देख रहे हैं पहले ऐसा गांव के चुनाव में ऐसा होता था, लेकिन अब तो लोकसभा और राज्यसभा के चुनाव में भी यह साफ देखने को मिल रहा है और लोकशाही और मताधिकार का गला घोंटा जा रहा है।
सब लोग जानते हैं कि चुनाव के दौरान फॉर्म भरने की तारीखों के दौरान और नाम वापस करने के समय के दौरान कैसे-कैसे स्टंट देखने को मिलते हैं जो कल चुनाव लड़ने के लिए राजी था वह आज फॉर्म वापस ले रहा है। जो कल सामने खड़ा था वह आज साथ खड़ा है। ऐसे दोगले लोग चुनाव लड़ रहे हैं जिसको न तो अपनी ईमानदारी की पड़ी है न ही अपनी धर्म की और न ही देश के प्रति अपने कर्म की। कोई भी प्रत्याशी अपना फॉर्म वैसे ही वापस नहीं खींचता है वह सब जानते हैं और ऐसे ही लोकशाही का हनन होता रहा तो देश में चुनाव का कोई मतलब ही नहीं रह जाएगा। जब चुनाव का मतलब नहीं तो लोकशाही का भी कोई मतलब नहीं, लेकिन ऐसी सब चीजों में नोटा इन सभी के ऊपर एक बहुत बड़ा किंग मेकर साबित हो सकता है, जिसको न तो हटाया जा सकता है न तो वापस लिया जा सकता है और न ही लोगों से अपना मताधिकार छीना जा सकता है, ऐसे में पहले जानते हैं नोटा के बारे में।
नोटा का अर्थ है- इनमे से कोई भी नहीं। नोटा का उपयोग पहली बार भारत में 2009 में किया गया था। स्थानीय चुनावों में मतदाताओं को नोटा का विकल्प देने वाला छत्तीसगढ़ भारत का पहला राज्य था। नोटा बटन ने 2013 के विधानसभा चुनावों में चार राज्यों छत्तीसगढ़, मिजोरम, राजस्थान और मध्य प्रदेश और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली में अपनी शुरुआत की। 2014 से नोटा पूरे देश मे लागू हुआ। भारत निर्वाचन आयोग ने दिसंबर 2013 के विधानसभा चुनावों में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में इनमें से कोई नहीं अर्थात नोटा बटन का विकल्प उपलब्ध कराने के निर्देश दिए।
2018 में नोटा को भारत में पहली बार उम्मीदवारों के समकक्ष दर्जा मिला। हरियाणा में दिसंबर 2018 में पांच जिलों में होने वाले नगर निगम चुनावों के लिए हरियाणा चुनाव आयोग ने निर्णय लिया कि नोटा के विजयी रहने की स्थिति में सभी प्रत्याशी अयोग्य घोषित हो जाएंगे तथा चुनाव पुनः कराया जाएगा। हालांकि अभी तक भारत निर्वाचन आयोग ने इसे लागू नही किया है।
भारत के आम चुनाव, 2019 में भारत में लगभग 1.04 प्रतिशत मतदाताओं ने उपरोक्त में से कोई नहीं (नोटा) के लिए मतदान किया, जिसमें बिहार 2.08 प्रतिशत नोटा मतदाताओं के साथ अग्रणी रहा।
यहां पर हमारे देश में अभी तक यह लागू नहीं किया गया है कि नोटा में ज्यादा मत पड़े तो सारे प्रत्याशी को गैर लायक ठहराया जाए और सारी चुनावी प्रक्रिया वापस हो। इसके साथ ही अगर कोई एक जगह सिर्फ एक ही प्रत्याशी बचता है जैसे की सूरत और इंदौर में हुआ तो नोटा एक प्रत्याशी के रूप में शामिल होगा और सारे नागरिकों को मताधिकार मिल सकेगा और अगर इस तरह के चुनाव में नोटा में मत ज्यादा आते हैं तो लोकशाही और संविधान के तहत वह चुनाव की प्रक्रिया फिर से होगी और आम लोगों को दोबारा उसी जगह मताधिकार मिलेगा। इसीलिए संविधान को और लोकशाही को जिंदा रखना है तो ना-लायक को ना-लायक कहना होगा और नोटा को भी प्रत्याशी का दर्जा देना होगा।

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