सुरेश जैन
श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। श्रीराम का जीवन समाज के लिए आदर्श है। उनकी शिक्षा गुरुकुल में होती है। बाबा तुलसी के शब्दों में गुरु गृह पढ़न गए रघुराई, अल्पकाल विद्या सब पाई। श्रीराम चक्रवर्ती सम्राट के बेटे हैं, किन्तु वे शिक्षा ग्रहण करने के लिए गुरु वशिष्ठ के गुरुकुल में जाते हैं। यह केवल प्रतीकात्मक नहीं है। इस व्यवस्था का व्यक्तित्व निर्माण पर गहरा प्रभाव पड़ता है। वे वहां दूसरे विद्यार्थियों की तरह ही रहते हैं। गुरुकुल के कार्यों में उसी तरह हाथ बंटाते हैं, जैसे दूसरे बटुक करते हैं। गुरुकुल में आम और ख़ास के बीच कोई भेद नहीं है। गुरुकुल में परा और अपरा अर्थात् लौकिक और अलौकिक दोनों तरह की ही शिक्षा ग्रहण की जाती है। परा विद्या में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद, नक्षत्र, वास्तु, आयुर्वेद, वेद, कर्मकांड, ज्योतिष, सामुद्रिक शास्त्र, हस्तरेखा एवम् धनुर्विद्या शामिल है। इससे उनकी समझ, अनुभव, विवेक, विचारशीलता और सही समय पर सही निर्णय लेने की क्षमता को विकसित करने की पृष्ठभूमि तैयार होती है। इसी तरह के पाठ्यक्रमों की परिकल्पना राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020 में भी की गई है। इसमें मुख्य विषय के अलावा आनुषांगिक विषयों को भी पढ़ाए जाने के लिए पाठ्यक्रम बनाए गए हैं। गुरुकुल में भी इसी तरह की व्यवस्था है। क्योंकि, राम चक्रवर्ती सम्राट के बेटे हैं। इसलिए उनके मूल विषय के रूप में कूटनीति और धनुर्विद्या जैसे विषयों को पढ़ना अनिवार्य है। किन्तु इसके साथ ही निरुक्त, छंद, नक्षत्र, वास्तु, आयुर्वेद, वेद, कर्मकांड, ज्योतिष जैसे विषयों की भी शिक्षा दी जाती है। ताकि उनके व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास हो सके।
गुरुकुल में इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि विद्यार्थी के लिए जितना महत्वपूर्ण उसका औपचारिक अध्ययन है, उतना ही महत्वपूर्ण अध्ययन के आसपास का परिवेश है। उस परिवेश के माध्यम से छात्रों में आत्मनिर्भरता, अनुशासन, समय प्रबंधन, सामाजिक सामंजस्य की कला और नेतृत्व के गुण जैसे व्यावहारिक ज्ञान, विद्यार्थी स्वयं ही आत्मसात कर लेता है। शिक्षा की पूर्णता में दोनों ही समान रूप से आवश्यक हैं। कौशल के राजकुमार राम गुरुकुल में एक बटुक की तरह इन सभी गुणों को सीखते हैं। गुरुकुल में राम विद्या ग्रहण करने जाते हैं। विद्या और ज्ञान में अंतर है। सूचनाओं के संकलन मात्र से ज्ञान तो प्राप्त हा सकता है, किन्तु विद्या उससे अलग है। विद्या सोदेश्य होती है। यह व्यक्तित्व को गढ़ने का एक माध्यम होती है। विष्णु पुराण में कहा गया है- तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तए आयासाय परम कर्म विद्यान्या शिल्प नैपुणम अर्थात् कर्म वही है, जो बंधन में न बांधे और विद्या वही है, जो मुक्त करे। अन्य सभी कर्म केवल निरर्थक क्रिया हैं, जबकि अन्य सभी अध्ययन केवल कारीगरी मात्र हैं। गुरुकुल में राम को दी जाने वाली विद्या मुक्ति देने के लिए दी जाने वाली शिक्षा है। उसका उनके व्यक्तित्व पर गहरा असर पड़ा है। मुक्ति का अर्थ सामाजिक जीवन की कुरीतियों से मुक्ति। अंधविश्वास से मुक्ति। मुक्ति का अर्थ ऊंच-नीच के मनोभाव से मुक्ति। मुक्ति के मायने अवैज्ञानिक सोच से मुक्ति। स्वार्थ और जड़ता से मुक्ति। हर तरह के अहंकार से मुक्ति। श्रीराम के व्यक्तित्व पर इस विद्या का गहरा असर पड़ा है और यह उनके भावी जीवन में दृष्टिगोचर भी हुआ है। विद्या के बारे में कहा गया है- विद्या ददाति विनयं, विनयाद्याति पात्रताम। विद्या विनय देती है। उससे पात्रता विकसित होती है। व्यक्ति उतना ही सीख पाता है, जितनी उसकी पात्रता होती है। जिसकी पात्रता जितनी व्यापक होती है, उसका व्यक्तित्व भी उतना ही व्यापक होता है। सागर जैसा व्यापक होने के लिए उसके जैसी व्यापक विनम्रता और शांत चित्त की आवश्यकता होती है। श्रीराम गुरुकुल जाकर इसी विनम्रता को आत्मसात करते हैं, जो उनके व्यक्तित्व को सागर जैसा विस्तार देती है। जिसके लिए नर-वानर में कोई भेद नहीं। नगरवासी और वनवासी उनके लिए एक जैसे हैं। सुग्रीव का भी स्वागत है और अपने विरोधी रावण के छोटे भाई को भी शरणागत किया जाता है। गुरुकुल में आत्मसात किए गए इन सभी सद्गगुणों का असर श्रीराम के जीवन पर स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020 में इस बात पर विशेष बल दिया गया है कि आरंभिक शिक्षा मातृभाषा में हो, शिक्षा में भारतीय मूल्यों और चरित्र निर्माण पर विशेष जोर हो। शिक्षा समावेशी हो। एकांगी नहीं हो और विद्यार्थियों में कौशल का विकास हो। राम के गुरुकुल की शिक्षा प्रकृति के नैसर्गिक परिवेश में दी जाती है। बटुक स्वयं अपनी कुटीर का निर्माण करता है और कठिन परिस्थितियों में भी जीवन-यापन के गुर सीखता है। सीखने के लिए आसपास के प्रतीकों और बिंबों का इस्तेमाल किया जाता है, जिससे समझने में सुविधा हो और उसके आधार पर विद्यार्थियों में तथ्यों का विश्लेषण करके सार्थक निष्कर्षों तक पहुंचने की क्षमता हो। स्वतंत्र भारत में गठित विशेषज्ञ समितियों की एकमत राय रही है कि शिक्षा भारतीय जीवन मूल्यों पर आधारित हो। राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020 में भी इस पर काफी बल दिया गया है। श्रीराम के गुरुकुल में शिक्षा और संस्कार इस तरह से एकरूप हैं कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता। संस्कार, शिक्षा पर आधारित है और शिक्षा संस्कारों की आधारशिला है। इस माध्यम से विद्यार्थियों को संस्कारमय बनाकर उन्हें आदर्श मानव बनाना ही शिक्षा व्यवस्था का प्रमुख उद्देश्य है। राम के व्यक्तित्व के रोम-रोम में इसका प्रभाव स्पष्ट नजर आता है। राम द्वारा गुरुकुल में प्राप्त की गई शिक्षा उन्हें नेतृत्व की अद्भुत क्षमता देती है। अपने राज्य से दूर जहां पर उन्हें कोई जानने वाला नहीं है, वहां पर वे स्थानीय लोगों को एकजुट करते हैं और समुद्र पर सेतु निर्माण का जटिल कार्य संपन्न करते हैं। तत्पश्चात रावण जैसे शत्रु पर विजय प्राप्त करते हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020 में कौशल विकास के साथ ही व्यावहारिक शिक्षा पर भी उतना ही ध्यान दिया गया है, जितना कि सैद्धांतिक शिक्षा पर। तत्कालीन परिस्थितियों में राजकुमार के लिए युद्ध कौशल उतना ही आवश्यक था, जितना कि कूटनीति का ज्ञान। राम अपने गुरुकुल से सैद्धांतिक विषयों के साथ ही युद्धकला की भी शिक्षा ग्रहण करते हैं। अपनी इस विद्या के बल पर ही वे ताड़का, मारीच और खर-दूषण जैसे समाज विरोधियों को समाप्त कर समाज में शांति स्थापित करते हैं और न्याय की रक्षा के लिए रावण जैसे शक्तिशाली राजा पर भी विजय प्राप्त करते हैं।
(लेखक तीर्थंकर महावीर यूनिवर्सिटी, मुरादाबाद-यूपी के कुलाधिपति हैं।)