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राजनीतिक दुर्भावना के वातावरण में हिन्दी भाषा की उपेक्षा

संसार के दूसरे सबसे अधिक आबादी वाले देश में ‘राजभाषा’ का दर्जा प्राप्त किये दशकों गुजर जाने और देश की अधिसंख्यक जनता द्वारा बोली जाने वाली भाषा होने के बाबजूद हिन्दी भाषा आज भी विकास, सम्मान और रोजगार देने वाली भाषा नहीं समझाी जाती। हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में जुटे सैकड़ों संगठन और सरकारी खजाने से करोड़ों रुपये फूंके जाने के बावजूद हिन्दी आज अपना अधिकार हासिल नहीं कर पाई है। प्रत्येक वर्ष हिन्दी की महत्ता का गुणगान हिन्दी दिवस और हिन्दी पखवाड़ों के माध्यम से 14 सितम्बर को किया जाता है। इन आयोजनों में हिन्दी की इस दुर्दशा के लिए जिम्मेदार लोग कौन है, और इसका भविष्य कैसा होगा जैसे सवाल हर साल उठाये जाते हैं और अगले दिन ही इनको ठण्डे बस्ते में डाल दिया जाता है। यह एक सच्चाई है जिसे हमें स्वीकार करके उन कारणों को खोजना चाहिए जसके कारण हिन्दी भाषा को वह यथोचित स्थान नहीं मिला जो मिलना चाहिए।
एक सौ पच्चीस करोड़ से भी अधिक आबादी वाले इस देश में किसी एक भाषा को ‘राष्ट्रभाषा’ का स्थान घोषित करने मात्र से ही चारों ओर बबाल उठ खडे़ होते हैं। विशेषकर देश का वह राजनीतिक वर्ग जो 73 वर्षों से यहां धर्म, सम्प्रदाय, जाति, वर्ग, क्षेत्र, और भाषा की राजनीति करके अपने स्वार्थों की सिद्धि करता चला आ रहा है, यह किसी भी तरह से इन कारणों को अपने हाथों की पकड़ से बाहर नहीं जाने देना चाहता। यह राजनीतिक दुर्भावना ही है जिसके कारण हिन्दी की ये दुर्दशा हुई है। संसद में राष्ट्रभाषा के प्रश्न पर हिन्दी को सर्वमान्य भाषा के नाम पर यदि हमारे राजनेता ‘हिन्दी’ या ‘अंग्रेजी’ शब्द न लगाते तो आज हमें इस विषय पर न तो कोई चर्चा करनी पड़ती और न ही हिन्दी के समर्थन व अंग्रेजी के विरोध में हिसी भी प्रकार का आंदोलन छेड़ना पड़ता। लेकिन ऐसा हुआ है और लगातार होता आ रहा है।
ये विडम्बना ही है कि जिस देश की 80-90 प्रतिशत जनता हिन्दी को न केवल समझती है अपितु प्रातः काल से रात्रि होने तक उसका निर्वाध प्रयोग करके जीवनक्रम को आगे बढ़ाती है, ऐसे देश के पांच-सात प्रतिशत अंग्रेजीपरस्त तथा सत्तालोभी लोगों के कारण देश में भाषाई प्रश्न विवाद का कारण बना हुआ है। इन्हीं अंग्रेजीपरस्तों की सुख-सुविधाओं को ध्यान में रखते हुये देश में शिक्षा की आलीशान दुकानें खुली हुई हैं, जहां सब कुछ है, यदि नहीं है तो वह हिन्दी है और इससे जुड़े हुए भारतीय संस्कार। वर्तमान में हिन्दी ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओं के स्कूलों की संख्या में भी भारी गिरावट आ रही है और अंग्रेजी माध्यम से स्कूल कुकुरमुत्तों की तरह पनप रहे हैं। अनेक बार ऐसे समाचार प्रकाश में आये हैं कि इन अंग्रेजीपरस्त विद्यालयों में हिन्दी बोलने पर बच्चों को अनेक प्रकार की यातनांए दी गईं, किन्तु शासन-प्रशासन मौन साधे रहा। राष्ट्रभाषा के प्रति इतना अनादर होने व भाषायी प्रयोग को लेकर आंदेालन होने स्वाभाविक हैं, किन्तु इन्हीं आन्दोलनकारियों पर पुलिस बल का प्रयाग व उन्हें निर्ममतापूर्वक खदेड़ने जैसे निन्दनीय कार्य भारत जैसे देश में ही संभव है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा का स्थान दिलाना तो दूर इसकी उपेक्षा ही की जा रही है, कारण तो सिर्फ और सिर्फ कुर्सी का खतरा।
वर्ष 1991 के बाद से देश में भूमण्डलीकरण और वैश्वीकरण का प्रभाव बढ़ा है। विश्व पटल पर हमारा देश एक विशाल उपभोक्ता मंडी के समान दिखायी देने लगा है, फलतः विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन सहित समस्त प्रभावशाली संगठनों द्वारा भारतीय राजनेताओं पर उदारीकरण लागू करने के दबाब और उपभोक्तावाद की जबरदस्त आंधी ने अपने पांव जमाने शुरु कर दिये। इस उपभोक्तावाीदी संस्कृति ने जहां एक तरफ संस्कारों की होली जलानी प्रारम्भ कर दी तो दूसरी तरफ ऐसी भाषा को जन्म दिया जो न तो हिन्दी है और न ही अंग्रेजी, इसे महानगरों में ‘हिग्लिंश’कहा जाता है, जिसमें मिले-जुले शब्दों के प्रयोग से आज की युवा पीढ़ी स्वंय को अत्याधुनिक बनाने की होड़ में जुटी है।
वर्तमान समय में बहुराष्ट्रीय की वृहद स्तर पर अपने पांव देश में प्रसार चुके हैं, एवं इन कम्पनियों को भी अपने व्यापार के लिए हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं का सहारा लेना पड़ रहा है। कुछ यही हमारे राजनेता या राजनैतिक पार्टी चुनाव के समय अपने हित के लिए करते हैं। ऐसे स्वार्थपरक लोग शायद यह भूल जाते हैं कि जब तक देश में संविधान, राष्ट्र-पताका, राष्ट्रगान और राष्ट्रभाषा की उपेक्षा या अनादर होता रहेगा तब तक राष्ट्र की एकता को सुरक्षित नहीं बनाया जा सकता।
आज चाहें शैक्षिक संस्थायें हों, व्यापार-वाणिज्यिक क्षेत्र हों छोटी-बड़ी अदालतें या फिर निजी एवं सार्वजनिक कार्यालय हों सभी में संविधान की भावनाओं और राजकीय आदेशों के विरुद्ध राजकीय आदेशों की खुली उपेक्षा करके सभी जगह धड़ल्ले से अंग्रेजी का प्रयोग हो रहा है। इसके पीछे वास्तव में ये कारण सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक स्वार्थपूर्ति है। ऐसे लोगों द्वारा जानबूझ की जाती रही यह भूल देश के लिए भारी भूल हो सकती है, जो न केवल भाषायी आधार पर भारत में अलग अलग राज्य के गठन की मांग के कारण राष्ट्रीय एकता में बाधा पहुंचायेगी।यह सोचना परम आवश्यक है कि हम अपनी भाषा को सही स्थान दिलायें, अतएव इसके प्रचार-प्रसार एवं विकास के लिए संगठित होकर हमें भरपूर प्रयास करना चाहिए और भारत का हित भी इसी में है। बहुभाषी संस्कृति सम्पन्न राष्ट्र होने के कारण यहां के निवासियों के विचारों में विभिन्नता जरुर है फिर भी समग्र भारत की जड़े अखण्ड हैं और इस सत्य का प्रतीक हिन्दी भाषा एवं संस्कृति के प्रांगण में देखने को अवश्य मिलता है। राजभाषा हिन्दी की विकास यात्रा अनेक चट्टानों और घाटियों से गुजरती हुई आज तक चली आई है। यह स्वाकार लेने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि इसके सुमन-वाटिका की सुगन्ध अभी सारे विश्व को सुवासित कर रही है।

डॉ. अक्षत अशेष

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