बाइस वर्ष बीत चुके है ,पिता दिवस (फादर्स डे) जब भी साल में आता है तो वो दिन मुझे जरूर याद आता है जब मेरा बेटा ढाई साल का था और मैं अपने मायके भागलपुर गई थी। मेरा मायके भागलपुर के एक गांव में हैं,जो गंगा के किनारे है, इस नदी को गंगा का कटाव भी कहा जाता है क्योंकि, गंगा की मुख्य धारा से कटकर पतली सी धारा बहती जो गंगा नदी से अलग हो जाती है, लेकिन सावन भादो में मुख्य गंगा की धारा से मिल जाती है और नदी का पाट चौड़ा हो जाता है।
गंगा की मुख्य धारा और कटाव के बीच के हिस्से को दियारा कहते हैं। मुख्य गंगा की धारा और कटाव की धारा जब मिलती है तो दियारा डुब जाता है और नदी का पाट बड़ा हो जाता है, इतना चौड़ा कि नदी के उस पार क्या है कुछ दिखाई नहीं देता है ऐसा लगता है जैसे शांत समुद्र हो। असीम शांति और लगाव मुझे नदी किनारे महसूस होती है, इसलिए जब भी मुझे मौका मिलता है मैं अपने मायके जरूर आती हूं और गंगा के किनारे बैठकर प्रकृति के सुंदर नज़ारों को निहारती हूं,नाव की सवारी करती हूं जो अत्यंत आनंददायक होता है मेरे लिए। यही प्रकृति का सुंदर नजारा बार बार मुझे अपने मायके की ओर खींच लाता है।
ऐसे ही एक बार जब मेरा बेटा ढाई साल का था मैं एक सप्ताह के लिए अपने मायके (मेरे गांव का नाम बलाहा) आई, मेरे पतिदेव भी मेरे साथ आए एक दिन रूककर अगले दिन ये घर के लिए निकल गए। ये चुपचाप घर के लिए निकल गए यदि निकु देखता तो रोने लगता। निकु को पापा से बहुत लगाव था, मैं ज्यादा कहीं जाती भी नहीं थी इसलिए निकु को पापा से अलग भी नहीं रहना पड़ता था। ये तो घर निकल गए दो घंटे बाद जैसे ही निकु को आभास हुआ कि, पापा घर चले गए उसने रोना शुरू कर दिया,नाना नानी,मामा मौसी सब उसको चुप कराने में लग गए मगर निकु मानने के लिए तैयार नहीं।
काफ़ी समझाने बुझाने के बाद वह चुप हुआ, मेरी जान में जान आई कि चलो किसी तरह एक सप्ताह निकु पापा के बिना रह लेगा। सबके फुसलाए जाने का असर मात्र तीन घंटा रहा निकु फिर रोने लगा, मामा बहला फुसलाकर कर बगल के दुकान से बिस्किट चाकलेट दिला लाये तो शांत हो गया, मुझे लगा की अब नहीं रोऐगा। परंतु तीन घंटा पूरा होते ही फिर रोने लगा, मुझे पापा के पास जाना है; मुझे पापा के पास जाना है; तब तक शाम हो चुकी थी नाना जी उसे बाज़ार घुमा लाए तब जाकर माना। रात हो गई निकु सो गया। मैं भी इस उम्मीद में सो गई की निकु अब नहीं रोऐगा। पर ये क्या सुबह उठते ही निकु ने रोना शुरू कर दिया…मुझे पापा के पास जाना है; मुझे पापा के पास जाना है; पूरा दिन इसी तरह से हर दो-तीन घंटे में रोता रहा कभी मामा, कभी नाना, कभी मौसी, कभी नानी समझाती रही और समझकर भी निकु समझने के लिए तैयार नहीं होता; जब भी रोता फर्श पर लोटने लगता। एक बार बहलाने फुसलाने का असर तीन ढाई से तीन घंटा रहता फिर रोना शुरू कर देता मुझे पापा के पास जाना है…मुझे पापा के पास जाना है…।
पूरा दिन मैंने किसी तरह से निकु को संभाला। रात को जब निकु सोया तब मुझे एहसास हुआ कि ये पापा के बिना रहने वाला नहीं है मुझे ससुराल वापस लौटना पड़ेगा। सुबह फिर निकु का वही ड्रामा…तब मैंने पतिदेव को फोन कर सारी यथास्थिति से परिचित कराया…बेटे की हालत जानकर बहुत खुश हुए, क्योंकि ये भी बेटे पर जान छिड़कते थे। बेटा बिना पापा के नहीं रहा है, अपने बेटे का प्यार और लगाव देखकर ये उस दिन ही हमें लेने आ गए। मैं एक सप्ताह सोच कर मायके आई थी किन्तु मुझे तीसरे दिन ही घर लौटना पड़ा। रास्ते भर निकु पापा की गोद में बैठा कभी बातें करता, कभी सो जाता, शांत और स्थिर पापा के साथ घर आ गया। मैं पुरे रास्ते सोचती रही कि, क्या निकु का लगाव भी मेरे लिए भी उतना ही है जितना पापा के लिए है?
सुनीता कुमारी
पूर्णियां बिहार